• जानिये फांसी देने के पूर्व कैदी के कान में जल्लाद क्या कहता है... ईनाम...

    नमस्कार दोस्तो आज हम आपको ले जायेंगे एक ऐसे रहस्य की ओर जिसको आप भी जानना चाहेंगे, दोंस्तो अक्सर आपने फिल्मो मे देखा होगा या कहीं से सुना होगा की किसी अपराधी को फंासी पर चढाने के पूर्व जल्लाद कैदी के कानो मे कुछ कहता है। तो दोस्तो आज हम आपको इस रहस्य से वाकिफ कराना चाहेंगे । नको ईनाम भी दिया जाता है।

  • माउण्ट एवरेस्ट फतह करने वाली दुनिया की पहली ट्विन्स

    दोस्तो आज हम बात करेंगे माउण्ट एवरेस्ट फतह करने वाली दुनिया की पहली ट्विन्स के बारे में। दोस्तो माउण्ट एवरेस्ट फतह करने वाली दुनिया की पहली ट्विन्स लडकियाॅ थी।

  • जानिए दुनिया में जन्म लेने वाला पहेला इंसान कौन था...

    नमस्कार दोस्तो, हर कोई जानना चाहता है की दुनिया में जन्म लेने वाला पहेला इंसान तो आइये आज हम जानते है हमारे अस्तित्व के बारे मे, आइये जानते है हमारे इतिहास को । इसके अलावा आज हम आपको बतायेंगे उस महिला के बारे मे जिसने दुनिया पर पहली बार बच्चा पैदा किया।

जमीन को हम कितनी गहराई तक खोद सकते है..?

    जैसा कि दोस्तों हम सभी जानते हैं यह पृथ्वी गोल है। इस हिसाब से एक प्रश्न यह उठता है कि अगर हम भारत के किसी एक भाग पर खुदाई करे तो क्या हम किसी दूसरे भू-भाग पर या देश अमेरिका तक पहुंच सकते हैं। जैसा कि हम जानते हैं भारत के ठीक पीछे अमेरिका आता है तो क्या हम भारत से सुरंग बनाकर अमेरिका जा सकते है क्या..? दोस्तों यह सवाल थोड़ा अजीब है परंतु इस सवाल में दम तो है, तो आइये अब जानते है की जमीन को हम कितनी गहराई तक खोद सकते है..?



      बचपन में हमने पढ़ा था कि यह धरती अलग-अलग परतों से बनी हुई है परंतु हैरान कर देने वाली बात यह है कि वैज्ञानिक भी आज तक यह पता नहीं लगा पाए कि आखिर इन परतों के नीचे क्या है? वैज्ञानिकों का सिर्फ अनुमान है कि इन परतों के नीचे खनिज या कुछ ऐसी जरूरी पदार्थ हो सकते हैं जो कि किमती और हमारे लिए उपयोगी है। परंतु यह सिर्फ एक अनुमान है सच क्या है यह किसी को नहीं पता। धरती के अंदर तक जाने के लिए विभिन्न देशों ने बहुत प्रयास किए परंतु हर बार असफलता ही हाथ लगी। दोस्तों आज हम आपको बताएंगे एक ऐसी जगह के बारे में जो कि मनुष्यो द्वारा धरती पर खोदी गई सबसे अधिक गहरी जगह है। इस जगह की गहराई में छुपी है अनेकों रहस्य जो कि आपको निश्चित ही सोचने पर मजबूर कर देंगे।

     सोवियत यूनियन ने रूस में एक खुदाई की जो कि धरती की सबसे गहरी जगह है जिसमे 167 क़ुतुब मीनार समा जाये अब आपको आश्वर्य यह होगा की फिर कितनी होगी इस जगह की गहराई ? तो अब हम आपको बता दे की वो जगह की गहराई 12 किलोमीटर है। 12 किलोमीटर गहरी इस जगह का नाम "कोला सुपरडीप होल" रखा गया है। यह कोला सुपरडीप होल समुद्र की सबसे अधिकतम गहराई से भी ज्यादा गहरा है। 12 किलोमीटर इस गड्ढे में अनेकों रहस्य छुपे हुए हैं जिसमें से कुछ  रहस्यों के बारे में बताया गया है। आइए जानते हैं कुछ विशेष और महत्वपूर्ण रहस्यों के बारे में।

      12 किलोमीटर गहरे इस गड्ढे को जब 7 किलोमीटर तक खोदा गया था तब वैज्ञानिकों को इस जगह पर पाए जाने वाले पत्थरों में जल मिला था। वैज्ञानिकों ने बताया यह जल वहां पर मौजूद ऑक्सीजन और हाइड्रोजन के कारण मिला है।

      इस गड्ढे की सबसे बड़ी खोज यह थी कि इसमें वैज्ञानिकों को सूक्ष्मजीव भी मिले। इतने गहरे गड्ढे में वो भी इतने अधिक तापमान होने पर भी वहां किसी ने भी जीवन की कल्पना नहीं की थी क्योंकि धरती के अंदर गहराई में जाने पर तापमान लगातार बढ़ता रहता है। खोजकर्ताओं का मानना था कि यह सिर्फ एक ही प्रकार के सूक्ष्म जीव होंगे परंतु बाद की खोजो से पता चला कि एक नहीं बल्कि बहुत प्रकार के सुक्ष्मजीव वहां मौजूद थे जो कि बहुत ज्यादा पुराने पत्थरों में पाए गए थे। धरती के अंदर के ये पत्थर 2 बिलियन वर्ष पुराने हैं और आज भी उसी स्थिति में मौजूद है। खोजकर्ताओं को इस गड्ढे के नीचे हिलियम, हाइड्रोजन, नाइट्रोजन और कार्बन डाइऑक्साइड जैसे बहुत सारे गैस भी मिले।

     सन् 1994 में कोला सुपरडीप होल को बंद कर दिया गया। खोजकर्ताओं का कहना था कि इस गड्ढे के सबसे अंतिम छोर में तापमान 180 डिग्री सेल्सियस था और इतने अधिक तापमान में कार्य जारी रखना संभव नहीं था। जैसा कि हम सभी जानते हैं 100 डिग्री सेल्सियस में पानी उबलने लगता है परंतु वहां तो तापमान 180 डिग्री सेल्सियस था इस कारण इस गड्ढे की खुदाई कार्य को बंद करना पड़ा। ऐसा खोजकर्ताओं ने बयान जारी किया था।

     इसके अलावा कुछ लोगों का यह भी मानना था कि उस गड्ढे से इंसानों के चीखने की आवाज आ रही थी इस कारण खोजकर्ता डर गए थे कि कहीं वह नरक तक खुदाई ना कर दे। कुछ खोजो में यह भी दावा किया गया था कि यह चीखे आत्माओं की है जो कि नरक में निवास करती है इस कारण इस गड्ढे को नरक का कुआं भी कहा जाता था। संभवतः यह बात महज़ एक झूठ हो सकती है क्योंकि ऐसा सिर्फ लोगों का अनुमान था। कुछ लोग यह भी मानते हैं कि कुछ रहस्यमयी कारणों की वजह से इस गड्ढे को बंद कर दिया गया।

     इस कोला सुपरडीप होल को स्थायी रूप से बंद कर दिया गया है ताकि भविष्य में अगर कोई भी इस प्रोजेक्ट को पुनः चालू करवाना चाहे तो भी ना करा सके। दोस्तों अगर यह आर्टिकल आपको पसंद आया है तो अपने दोस्तों के साथ भी शेयर कीजिए और हमारे फेसबुक पेज को लाइक कीजिए ऐसे ही रहस्यमयी और मजेदार आर्टिकल्स के लिए........
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कोई व्यक्ति कितने समय तक अकेले रह सकता है...?

अकेलापन एक ऐसा शब्द है जिसे हर कोई अपने जिंदगी में लाना चाहता है। दिनभर की परेशानियों, चिंताओ एवं शोर से भरी वातावरण से दूर हर कोई चाहता है कि उसे कुछ समय तक शांत एवं अकेलेपन का माहौल मिले। अकेलेपन की एक दूसरी वजह यह भी है कि लोग टेक्नोलॉजी में इतना विकसित हो चुके हैं कि लोग आपस में मेल मिलाप से दूर अपना अधिकांश समय कंप्यूटर, मोबाइल में व्यतीत करने लगे हैं। दोस्तों क्या कभी आपने कल्पना किया है कि आखिर कोई व्यक्ति कितने समय तक अकेले रह सकता है? क्या आपने कल्पना किया है कि अधिक समय तक अकेले रहने से किन-किन अजीब परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है? क्या अकेलापन हावी हो जाए तो लोग पागल भी हो सकते हैं? इन सभी सवालों के जवाब ढूंढने के लिए वैज्ञानिकों ने कुछ प्रयोग किये है जिसका परिणाम नीचे बता रहा हूं जो कि संभवतः आपको हैरान कर देंगे।


  •      माइकल शिफ्रे का प्रयोग :-
     फ्रेंच एक्सप्लोरर माइकल शिफ्रे ने अकेलापन का दुष्परिणाम जानने के लिए खुद पर एक प्रयोग किया। इस प्रयोग का मुख्य उद्देश्य था कि अगर कोई अंतरिक्ष यात्री अंतरिक्ष में किसी दुर्घटना में फंस गया और उसे अकेले रहने जैसी परिस्थिति का सामना करना पड़ा तो उसके दिमाग पर क्या प्रभाव पड़ेगा। 14 फरवरी सन् 1972 को माइकल 6 महीने अर्थात् 180 दिनों के लिए टेक्सास के मिडनाइट नामक गुफा में रहने चले गए। वहां माइकल मोबाइल एवं इंटरनेट से दूर एक नायलाॅन के टेंट में रहते थे। उस समय उसके पास कुछ किताबें, सीडी प्लेयर और फ्रीजर के अलावा कुछ नहीं था। माइकल के भोजन की जिम्मेदारी नासा (NASA) ने ली थी ताकि माइकल के स्वास्थ्य पर नजर रखा जा सके। कुछ दिन अकेले रहने के बाद ही माइकल पर अकेलापन हावी होने लगा और वह कुछ भी अजीब अजीब बातें सोचकर दुःखी हो जाते थे। महज़ 77 दिनों के बाद ही माइकल को छोटी मोटी बातें याद रखने के लिए भी काॅपी-पेन का सहारा लेना पड़ा। 6 महीनों बाद जब माइकल वापस आए तो वह पागल तो नहीं हुआ परंतु वापस आने के तीन-चार सालों तक उसकी स्मरणशक्ति ठीक से काम नहीं करती थी और माइकल को कभी-कभी सदमे का दौरा भी पड़ता था।

  •   एडम ब्लूम का अकेलापन :- 
      बीबीसी ने माइकल शिफ्रे की प्रयोग की तरह ही एक और प्रयोग किया जिसमें 6 चुने हुए लोगों को न्यूक्लियर बंकर में 48 घंटे अकेले गुजारने थे। इन 6 लोगों में एडम ब्लूम नामक एक कॉमेडियन थे जिसने 2-4 घंटो तक गाना गाकर एवं चुटकुले बोलकर जल्दी-जल्दी समय बिताने का प्रयास किया। परंतु 18 घंटे बाद ही ब्लूम को सदमा एवं चिड़चिड़ापन आने लगा। 40 घंटे होते ही ब्लूम पर दृष्टिभ्रम (वहम) हावी होने लगा और उसके दिमाग ने खेल खेलना चालू कर दिया। ब्लूम को भूतियाॅ पैरों की आहट सुनाई देने लगी एवं और भी बहुत सारे वहम होने लगे। ब्लूम ने 48 घंटों का समय पूरा किया और न्यूक्लीयर बंकर से सही सलामत बाहर आ गया।

        इन प्रयोगो से स्पष्ट होता है कि अकेलेपन से लोग पागल तो नहीं हो सकते लेकिन पागलपन के बहुत करीब आ सकते हैं। दोस्तों अगर यह आर्टिकल आपको पसंद आया है तो अपने दोस्तों के साथ भी शेयर कीजिए और हमारे फेसबुक पेज को लाइक कीजिए ऐसे ही चटपटी, रहस्यमयी एवं मजेदार आर्टिकल्स के लिए..........
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ये ग्रह पृथ्वी से टकराकर कर देगा पृथ्वी को नष्ट...

पिछले कुछ दशकों से मनुष्य तकनीकी ज्ञान में इतना विकसित हो चुका है कि हमें हमारे अंतरिक्ष के बारे में बहुत सारी रहस्यमयी और अदभुत जानकारी प्राप्त है। जिनमें से कुछ जानकारी अभी भी अनसुलझा हुआ रहस्य है। इसी अनसुलझी हुई जानकारी के क्रम में हमें एक ऐसी क्षुद्रग्रह के बारे में जानकारी मिली है जिसके अध्ययन से हमें पृथ्वी की संरचना एवं बनावट के संबंध में बहुत सारी रहस्यमयी जानकारी प्राप्त हो सकती है। यह क्षुद्रग्रह आदिकाल में पृथ्वी का ही एक हिस्सा था जो कि किसी कारणवश पृथ्वी से अलग हो गया था। ये क्षुद्रग्रह आज भी पृथ्वी से बहुत दूर है और अपनी कक्ष में सूर्य की परिक्रमा कर रहा है। वैज्ञानिकों का ऐसा अनुमान है कि यह क्षुद्रग्रह एक दिन पृथ्वी से टकरा जाएगा और पृथ्वीवासियों को इसका बहुत बुरा परिणाम भुगतना पड़ सकता है। आइए दोस्तों जानते हैं इस क्षुद्रग्रह के बारे में विस्तार से और उस दिन का जिस दिन या क्षुद्रग्रह पृथ्वी से टकराएगा।



       11 सितंबर सन् 1999 को "लिंकल्न नियर-अर्थ स्टीरॉयड रिसर्च (LINEAR)" ने एक छुद्रग्रह की खोज की।  23 सितंबर सन् 1999 को "डीप स्पेस नेटवर्क" से राडार इमेजिंग के द्वारा इस क्षुद्रग्रह की तस्वीरें खींची गई। यह धरती के बहुत करीब से गुजरा था। इस क्षुद्रग्रह का नाम बेन्नू 101955 (BENNU 101955) रखा गया था। यह बेनू नामक क्षुद्रग्रह हमें हमारे अस्तित्व के बारे में बताने वाला है क्योंकि यह पहले हमारी धरती का ही एक भाग था। यह कार्बोनेेशियस क्षुद्रग्रह(बेनू) धरती के कक्ष के बहुत नजदीक से ही सूर्य की परिक्रमा करता है।

      18 सितंबर सन् 2016 को OSIRIS-REx प्रक्षेपित किया गया जिसका उद्देश्य था बेनू क्षुद्रग्रह पर लैंड कर उसका सैंपल लेकर वापस धरती पर आना। वैज्ञानिकों के अनुमान के अनुसार सितंबर 2023 तक OSIRIS-REx वापस धरती पर आ जाएगा। अर्थात यह मिशन 7 वर्षों तक चलेगा। यह मिशन सुनने में जितना आसान लग रहा है वास्तव में उतना आसान नहीं है। इस मिशन की कुल लागत 800 मिलीयन डॉलर है यानी कि 5,55,52,00,00,000 रुपए है।

      ताजा जानकारी के अनुसार 3 सितंबर सन् 2018 को OSIRIS-REx 2 सालों के लंबे समय अंतराल के बाद छुद्र ग्रह बेनू के बहुत नजदीक तक पहुंच चुका है। इस OSIRIS-REx ने बेनू की एक स्पष्ट तस्वीर भी भेजी है। इन तस्वीरों की मदद से हमें पहली बार ऐसा मौका मिला है कि हम किसी छुद्रग्रह को इतने करीब से देख सके हैं।

     वैसे तो सौरमंडल में बहुत सारे क्षुद्रग्रह है परंतु यह बेनू नामक क्षुद्रग्रह हमारे लिए कुछ ज्यादा ही विशेष प्रकार का है। देखने में यह क्षुद्रग्रह लड्डू की तरह गोल घूमती हुई दिखाई देती है। यह क्षुद्रग्रह 4.3 घंटों में अपने अक्ष पर एक परिक्रमा पूर्ण करता है। बेनू की परिक्रमा करने की गति समय के साथ लगातार बढ़ती जा रही है। गणना के अनुसार वैज्ञानिकों का अनुमान है कि सितंबर सन् 2060 में बेनू धरती से करीब 7 लाख 50 हज़ार किलोमीटर दूर से गुजरेगा और सितंबर सन् 2135 में करीब 3 लाख किलोमीटर की दूरी से धरती से गुजरेगा अर्थात चांद जितनी दूरी से धरती से गुजरेगा। सितंबर सन् 2175 में बेनू धरती से टकरा सकता हैए परंतु इसकी संभावना बहुत ही कम है। इस क्षुद्रग्रह का धरती पर टकराने की संभावना 24 हज़ार में से एक (1/24,000) है। परंतु फिर भी अगर यह बेन्नू धरती से टकरा गया तो पूरे एक शहर को नष्ट करने की क्षमता रखता है। चूंकि बेनू की धरती पर टकराने का समय अभी बहुत दूर है इस कारण वैज्ञानिक अभी सिर्फ बेनू के अध्ययन पर लगा हुआ है जिससे कि हमें निश्चित ही हमारे उत्पत्ति एवं ब्रह्मांड की उत्पत्ति के संबंध में बहुत सारी रहस्यमयी जानकारी प्राप्त हो सकती है।

       सितंबर सन् 2023 को OSIRIS-REx बेनू पर अपना मिशन पूरा करके वापस धरती पर आएगा अर्थात बेनू की सतह की कुछ सैंपल लेकर वापस धरती पर आएगा। जिसके अध्ययन से हमें निश्चित ही बहुत सारी नयी जानकारी प्राप्त हो सकती है। दोस्तों अगर यह आर्टिकल आपको पसंद आया है तो अपने दोस्तों के साथ भी शेयर कीजिए और हमारे फेसबुक पेज को लाइक कीजिए ऐसी ही चटपटीए मजेदार और रहस्यमयी आर्टिकल्स के लिए...



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अमेरिका ने क्यों गिराया था जापान पर परमाणु बम...?

      युद्ध की स्थिति इतनी दुखद और विनाशकारी होती है कि चाहे कोई भी देश जीते या हारे नुकसान तो दोनों पक्षों का होता है। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान एक ऐसा ही भयानक मंज़र देखने को मिला जब अमेरिका ने जापान के दो प्रमुख शहरों हिरोशिमा और नागासाकी में परमाणु बम से हमला किया था। इन दोनों शहरों में हुई बमबारी से जापान को बहुत ज्यादा नुकसान हुआ और उनके बहुत सारे सैनिकों सहित 2 लाख लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी। दोस्तों प्रश्न यह बनता है कि अमेरिका ने आखिर जापान के इन दोनों शहरों को ही क्यों चुना और ऐसी क्या वजह थी जिसके कारण अमेरिका को इतने खतरनाक परमाणु बम का सहारा लेना पड़ा ?  आइए दोस्तों जानते हैं इन सभी सवालों के जवाब और इस बमबारी से संबंधित कुछ रोचक बातें।



      द्वितीय विश्वयुद्ध की यह लड़ाई दो समूहों के बीच थी। पहले समूह एक्सिस पावर जिसमें जर्मनी, इटली, जापान, हंगरी जैसे और भी बहुत सारे देश शामिल थे। वहीं दूसरी ओर एलाइड पावर में अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, फ्रांस, ब्राजील, ऑस्ट्रेलिया और बहुत सारे देश शामिल थे। हिटलर की मृत्यु हो जाने से जर्मनी की नाज़ी सेना कमजोर हो गई और आत्मसमर्पण कर गई। जर्मनी के युद्ध से हट जाने से एक्सिस पावर एलाइड पावर की तुलना में कमजोर होने लगी। हालांकि जापान जैसी मजबूत देश अभी भी एक्सिस पावर में थी। परंतु जैसे-जैसे समय आगे बढ़ता गया जापान की शक्तियां भी कमजोर होने लगी। फिर भी जापान के राजा हीरोहीतो आत्मसमर्पण करने के लिए तैयार नहीं थे। उनका कहना था कि हम अपनी आखरी सैनिक तक लड़ेंगे और हार नहीं मानेंगे। इस तरह द्वितीय विश्व युद्ध लगातार चलता रहा और दोनों पक्षो को नुकसान होता रहा। ऐसी स्थिति में जापान को रोकने और द्वितीय विश्व युद्ध को खत्म करने के लिए अमेरिका को कुछ बड़ा कारनामा करना था। 16 जुलाई 1945 को अमेरिका ने परमाणु बम बनाकर उसका सफल परीक्षण भी कर लिया। इसी समय जापान भी ऑपरेशन डाऊनफाल के नाम से अमेरिका पर बड़ा हमला करने की तैयारी में था। इसकी खबर अमेरिका के राष्ट्रपति हैरी ट्रूमन को मिली तो उसने अपने देश के बड़े अधिकारियों से मिलकर जापान पर परमाणु हमले की तैयारी शुरू कर दी।

     परमाणु हमला करने से पहले देश को किसी दूसरे देश से सहमति लेनी पड़ती है इसलिए अमेरिका ने यूनाइटेड किंगडम से परमाणु हमले की सहमति ले ली।

  पहला परमाणु हमला :
       6 अगस्त 1945 को 8:45 में अमेरिका ने एयरक्राफ्ट द्वारा जापान के हिरोशिमा में बम गिरा दिया। इस बम को एयरक्राफ्ट से जमीन पर पहुंचने में कुल 44 सेकंड लगे थे। इस बम का नाम "लिटिल ब्वॉय" रखा गया था। इस परमाणु हमले से हिरोशिमा के लगभग 80,000 लोग मारे गए। चूंकि जापान का यह हिरोशिमा शहर सैनिक महत्व वाला था इस कारण यहां पर सर्वप्रथम परमाणु हमला किया गया। इस परमाणु हमले से हिरोशिमा की लगभग 30% आबादी खत्म हो गई।

  दूसरा परमाणु हमला :
      9 अगस्त 1945 को 11:02 पर अमेरिका ने जापान के नागासाकी पर एक और परमाणु हमला कर दिया। हालांकि यह दूसरा परमाणु बम जापान के औद्योगिक शहर कोकुरा में गिराना था परंतु खराब मौसम की वजह से यह दूसरा बम नागासाकी में ही गिराना पड़ा। यह दूसरा परमाणु बम नागासाकी की जमीन से 500 फीट ऊपर ही फट गया। आसपास पहाड़ होने की वजह से इस दूसरे बम का प्रभाव उतना ना रहा जितना की खतरनाक प्रभाव हिरोशिमा पर गिराए गए बम का था। इस दूसरे परमाणु बम का नाम "फैट मैन" रखा गया था। इस दूसरे परमाणु हमले से 40,000 लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी इसके अलावा रेडिएशन की वजह से और भी अनेक लोग मारे गए।

     हिरोशिमा एवं नागासाकी में हुए इस परमाणु हमले के बाद जापान के राजा हीरोहीतो ने 14 अगस्त 1945 को अमेरिका के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। ऐसा कहा जाता है कि अगर जापान अभी भी आत्मसमर्पण नहीं करता तो जापान पर एक और तीसरा परमाणु हमला अमेरिका 19 अगस्त को करने वाला था।

    1945 में जापान के हिरोशिमा एवं नागासाकी पर हुए इन दो खतरनाक परमाणु हमले के बाद भी 1964 में जापान ने विश्व खेल जगत की सबसे बड़ी इवेंट टोक्यो ओलंपिक की मेजबानी की थी। दोस्तों अगर यह आर्टिकल आपको पसंद आया है तो अपने दोस्तों के साथ भी शेयर कीजिए और हमारे फेसबुक पेज को लाइक कीजिए ऐसे ही चटपटी, रहस्यमयी मजेदार आर्टिकल्स के लिए......


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ऐसी पुस्तक जिसे नाही कोई समझ पाया और नाही कोई पढ़ पाया...

यूं तो दोस्तों इस दुनिया में बहुत सारे सुलझे . अनसुलझे रहस्य मौजूद है परंतु दोस्तों आज हम आपको बताएंगे एक ऐसी रहस्यमयी किताब के बारे में जिसके रहस्य को आज तक कोई नहीं सुलझा सका। इस रहस्यमयी किताब का नाम है वायनिक मनुस्क्रिप्ट। इस किताब को वायनिक पांडुलिपि भी कहा जाता है। इस किताब में लिखी हुई लिपि इतनी रहस्यमयी है कि आज तक कोई भी लिपि विद्या जानने वाला या कोई भी व्यक्ति इस किताब को पढ़ या समझ नहीं पाया। माना जाता है कि इस रहस्यमयी किताब के अंदर प्राचीन इतिहास एवं खगोल शास्त्रए आयुर्वेदए जादूगरी जैसे बहुत सारे रहस्य छुपे हो सकते है। आइए दोस्तों जानते हैं इस रहस्यमयी किताब के बारे में कुछ महत्वपूर्ण एवं रोचक बातें।


      वायनिक मनुस्क्रिप्ट नामक यह रहस्यमयी किताब 600 वर्ष पूर्व 15 वीं सदी में लिखी गई थी। इस किताब के लेखक रोजर बेकॅन को माना जाता है। यह किताब 240 पन्नो की है। इस 240 पन्नो में से अभी तक एक अक्षर को भी नहीं समझा जा सका हैं। इस किताब की पन्ने चमड़े के बने हुए हैं। इसके पन्ने एवं स्याही की कार्बन डेटिंग पद्धति द्वारा अध्ययन करने पर पता चला है कि यह किताब 15वीं सदी में लिखी गई थी। इस किताब को 6 भागों में बांटा गया है। इन भागों में अंकित चित्रों द्वारा इस रहस्यमयी किताब के बारे में कुछ हद तक जानकारी प्राप्त हुई है।

  • पहला भाग : 

     वायनिक मनुस्क्रिप्ट नामक इस किताब के पहले हिस्से में खगोल विज्ञान के बारे में बताया गया है। पहले भाग में सूर्यए चंद्रमा और तारों के चित्र देखने को मिलते हैं।

  • दूसरा भाग :

     दूसरा भाग जीव विज्ञान से संबंधित है। इस भाग में मानव अंगो के विभिन्न चित्र देखने को मिलते हैं।

  • तीसरा भाग :

     तीसरा भाग ब्रह्मांड विज्ञान से संबंधित है क्योंकि इस भाग में बहुत सारे गोल संरचनाएं दिखाई देती है।

  • चौथा भाग :  

      इस किताब का चौथा भाग पेड़ . पौधों से संबंधित है। इस भाग में कुछ ऐसे पौधों के भी चित्र दर्शाए गए हैं जो कि इस पृथ्वी पर मौजूद ही नहीं है।

  • पांचवा भाग :

      पांचवा हिस्सा जड़ी बूटियों एवं आयुर्वेद से संबंधित है जिसमें संभवतः विभिन्न औषधियों के बारे में बताया गया है।

  • छठवां भाग :

     वायनिक मनुस्क्रिप्ट नमक इस रहस्यमयी किताब का छठवां और आखिरी हिस्सा सबसे ज्यादा रहस्यमयी है क्योंकि इस हिस्से में कोई भी चित्र अंकित नहीं है और कुछ विशेष प्रकार की लिपि में कुछ लिखा गया है जिसे आज तक कोई भी समझ नहीं पाया। इसी कारण से इस भाग को समझ पाना बेहद मुश्किल है‌

     ऐसा प्रतीत होता है कि इस रहस्यमयी किताब की लिपि को समझ पाना लगभग मुश्किल ही है क्योंकि बहुत से लिपि विद्या जानने वाले इस किताब को समझने की कोशिश कर चुके हैं परंतु वे सभी असफल ही रहे हैं।

    संभवतः दोस्तों वायनिक मनुस्क्रिप्ट नामक इस रहस्यमयी किताब की लिपि अगर समझ आ गयी तो हमें प्राचीन इतिहास के बारे में एवं विभिन्न प्रकार की दुर्लभ जानकारी प्राप्त हो सकती है। परंतु दोस्तों क्या कभी हम इस रहस्यमयी किताब में लिखी हुई बातों को जान पाएंगे... 

    दोस्तों अगर यह आर्टिकल आपको पसंद आया है तो अपने दोस्तों के साथ भी शेयर कीजिए और हमारे फेसबुक पेज को लाइक कीजिए ऐसे ही चटपटी रहस्यमयी मजेदार आर्टिकल्स के लिए...


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बुद्ध ग्रह को धरती से देखने का मौका...

11 नवंबर सन् 2019 दिन : सोमवार, दोस्तों इस तारीख को अपने कैलेंडर इत्यादि में चिन्हित कर लो यह समय आपके लिए बेहद ही खास हो सकता है। दोस्तों मै ऐसा इसलिए कह रहा क्योंकि खगोलशास्त्रियों एवं वैज्ञानिकों का मानना है कि इस दिन सौरमंडल पर एक अनोखी और दुर्लभ घटना घटने वाली है। अगर आप इस दुर्लभ घटना को देखने से चूक गए तो अगली बार इस दुर्लभ घटना को देखने के लिए आपको 13 वर्षों तक इंतजार करना पड़ेगा अर्थात अगली बार यह दुर्लभ दृश्य सन् 2032 को देखने को मिलेगा। आइए दोस्तों जानते हैं इस दुर्लभ दृश्य के बारे में।


      11 नवंबर सन् 2019 दिन सोमवारए को सूर्यास्त के समय बुध ग्रह सूर्य के भीतर से गुजरने वाला है। बुध ग्रह को सूर्य से गुजरते हुए हम धरती से भी देख सकेंगे। परंतु दोस्तों बुध ग्रह को सूर्य से गुजरते हुए देखने के लिए हमें कुछ आवश्यक सावधानी बरतनी पड़ेगी क्योंकि बुध ग्रह बहुत छोटा होता है इसलिए उसे देखने के लिए टेलिस्कोप का उपयोग करना पड़ सकता है। यह घटना बहुत ही दुर्लभ होती है जिसे हम सूर्यास्त के समय धरती से देख सकेंगे।

      दोस्तों यह दुर्लभ घटना 100 सालों में सिर्फ 13 बार ही देखने को मिलता है। पिछली बार यह दृश्य 9 मई सन् 2016 को देखा गया थाए उससे पहले सन 2006 को यह घटना देखी गई थी। दोस्तों अगर आप इस बार इस दृश्य को देखने से चूक गये तो अगली बार ऐसा दृश्य देखने के लिए आपको 13 साल अर्थात् सन् 2032 तक इंतजार करना पड़ेगा।

      11 नवंबर सन् 2019 दिन सोमवार को बुध ग्रह का सूर्य से पारगमन होने वाली इस घटना के बारे में अपने दोस्तों एवं सगे संबंधियों को भी जरूर बताएं ताकि सभी लोग इस दुर्लभ घटना के बारे में जान सके और देख भी सके। इस आर्टिकल को अपने दोस्तों तक भी पहुंचाए ताकि सभी लोग इस दुर्लभ दृश्य के बारे में जान सकें और इस अनोखी दृश्य का आनंद उठा सकें।

    दोस्तों अगर यह आर्टिकल आपको पसंद आया है तो अपने दोस्तों के साथ भी शेयर कीजिए और हमारे फेसबुक पेज को लाइक कीजिए ऐसे ही मजेदार और रहस्यमयी चटपटी आर्टिकल्स रोज पढ़ते रहने के लिए.... 


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रेल की पटरियों के बिच में पत्थर क्यों बिछाये जाते है...?


दोस्तों रेलगाड़ी में आपने तो बहुत बार सफर किया होगा परंतु दोस्तों क्या कभी आपने गौर किया है कि आखिर इतनी भारी भरकम रेलगाड़ी जो कि करीब 10000 किलो की होती है इतनी भारी वजन को सिर्फ दो मामूली पटरिया ही कैसे सह पाती है। क्या कभी आपने कल्पना किया है कि पटरी के नीचे गिट्टी क्यों बिछाया जाता है अगर आपका ऐसा मानना है कि सिर्फ पटरिया ही रेलगाड़ी का वजन थामें रखती है या रेलगाड़ी का सही एवं सुरक्षित रूप से चलने का कारण सिर्फ पटरिया ही है तो आप बिल्कुल गलत है। तो आइये जानते है की रेलगाड़ी का वजन सहन करने में क्या क्या मदद करता है। 



  • स्लीपर्स या प्लेट्स :
          रेल की पटरी को जमीन से थोड़ा ऊपर बनाया जाता है क्योंकि पटरी के नीचे और भी बहुत सारे परतों को बिछाया जाता है। सबसे ऊपर में पटरी होती है पटरी के नीचे कंक्रीट के बने प्लेट्स होते हैं जिसे स्लिपर्स कहते हैं। ये  स्लिपर्स दो पटरी के बीच की दूरी को एक समान बनाए रखती है। यदि पटरियों पर स्लीपर्स ना हो तो जब रेलगाड़ियां पटरी में से होकर चलेगी तो दोनों पटरिया अपने निश्चित जगह में से हट जाएंगे जिससे दुर्घटना होना अनिवार्य है। इस कारण दो पटरियों को निश्चित जगह पर बनाए रखने के लिए स्लीपर प्लेट्सद्ध  लगाया जाता है। यह स्लिपर्स कांक्रीट की बनी होती है जो दोनों पटरियों को आपस में निश्चित दूरी तक जकड़े रखती है।

  • गिट्टी (पत्थऱ) :
        पटरी एवं स्लिपर्स के नीचे गिट्टी को बिछाया जाता है। रेलगाड़ी की संपूर्ण भार का दबाव इन्हीं गिट्टियों पर पड़ता है। ये गिट्टियां विशेष प्रकार से टेढ़ी.मेढ़ी आकृतियों की होती है ताकि रेलगाड़ी का वजन पड़ने पर भी ये गिट्टियां अपने मूल स्थान से ना हटे। अगर इन गिट्टियों के अलावा गोल पत्थरों का इस्तेमाल किया जाए तो यह पत्थर रेत का वजन पड़ते ही अपने मूल स्थान से हट जाएंगे और इससे संभवतः ही बहुत बड़ी दुर्घटना हो सकती है। इसी कारण से विकृत आकार वाले गिट्टियों का उपयोग किया जाता है।

        इसके अलावा गिट्टियों की उपस्थिति पटरी पर पानी के जमाव को रोकती है। अगर गिट्टी ना हो तो पटरी पर मिट्टी होने के कारण पेड़ पौधे या झाड़ियां भी उग सकते हैं। इन्हीं सब कारणों के कारण पटरियों पर गिट्टी का बिछाया जाना अनिवार्य होता है।

        गिट्टी के नीचे और भी कुछ परतें बिछाई जाती है जो कि पटरियों को सहारा प्रदान करने के लिए आवश्यक होती है। परंतु दोस्तों मेट्रो ट्रेन्स की पटरियों पर गिट्टी नहीं बिछाई जाती क्योंकि यह सामान्य रेलगाड़ियों की अपेक्षा हल्की होती है। इसके अलावा इसकी अधिकांश पटरिया अंडरग्राउंड एवं ओवरब्रिज पर होती है।

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इन पौधों के पास गलती से भी ना जाये...

कुदरत का करिश्मा कुछ इस प्रकार से देखने को मिला है कि इस धरती पर विविध प्रकार के अजीबोगरीब जीव . जंतु एवं पेड़ . पौधे पाए जाते हैं। कुछ जीव मांसाहारी होते हैं तो कुछ शाकाहारी एवं अधिकांश पौधे प्रकाश संश्लेषण द्वारा अपना भोजन बनाते हैं। दोस्तों क्या कभी आपने कल्पना किया है कि आखिर कोई पौधा भी मांसाहारी हो सकता है। दोस्तों कुदरत का करिश्मा कुछ इस प्रकार से बरसा है कि हमें इस धरती पर एक नहीं बल्कि बहुत सारे मांसाहारी पौधे देखने को मिलते है। ये मांसाहारी पौधे देखने में जितना सुंदर होते हैं उतना ही खतरनाक भी होते हैं। आइए दोस्तों जानते हैं कुछ ऐसे ही मांसाहारी पौधों के बारे में जो भोजन के रूप में मांस का सेवन करते हैं।



  • नीपेन्थिस : 

     सुराहीनुमा दिखने वाला यह पौधा अत्यंत सुंदर दिखाई देता है। कुछ छोटे छोटे जीव इसके फंदे में आ जाते हैं और अपनी जान गंवा बैठते हैं। इसकी सुंदरता एवं बनावट से मोहित होकर कुछ जीव इसके करीब आ जाते हैं और इसके सुराहीनुमा संरचना में फंस जाते हैं। इस पौधे के अंदर उपस्थित खास तरह के द्रव्य के द्वारा फंसे हुए छोटे जीव का पूरी तरह से पाचन कर लिया जाता है। इस पौधे को एशियन पिचर के नाम से भी जाना जाता है। यह पौधा छोटे मेंढको सहित कीट पतंगों को  अपना शिकार बना लेता है।

  • ड्राॅसेरा :

           यूरोप के कुछ स्थानों में पाया जाने वाला यह भी एक मांसाहारी पौधा है। इसके निचले भाग में एक सुगंधित द्रव्य पाया जाता है जिसे नेक्टर कहते हैं। छोटे जीव एवं कीट पतंग सुगंधित द्रव्य से आकर्षित होकर इसके करीब आते हैं और इस पौधे की चिपचिपी रेशे में फंस जाते हैं और अपनी जान गवां बैठते हैं।

  • डायोनिमा म्यूसीपुला :

       यह मांसाहारी पौधा बाकी मांसाहारी पौधों में से सबसे खतरनाक है। दूसरे मांसाहारी पौधे नेक्टर द्रव्य आदि अन्य तरीकों से शिकार करते हैं परंतु डायोनिमा म्यूसीपुला अपने शिकार पर घात लगाकर शिकार करता है। यह पौधा जबड़े की संरचना जैसी दिखाई देता है। जैसे ही कोई कीट पतंग या छोटे जीव इसकी पत्तियों में आकर बैठते हैं यह उसे अपना शिकार बना लेता है और तब तक जकड़ के रखता है जब तक उसको पूरी तरह से हजम ना कर लें। इसी कारण दोस्तों इसे सबसे खतरनाक मांसाहारी पौधा माना जाता है।

        यूं तो दोस्तों इस दुनिया में बहुत सारे मांसाहारी पौधे पाए जाते हैं परंतु यहां हमने सिर्फ कुछ ही मांसाहारी पौधो के बारे में बताया है। दोस्तों अगर यह आर्टिकल आपको पसंद आया है तो अपने दोस्तों के साथ भी शेयर कीजिए और हमारे फेसबुक पेज को लाइक कीजिए ऐसी ही चटपटीए मजेदार और रहस्यमयी जानकारी के लिए...


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एक जवान, ७२ घंटे और ३०० खतरनाक दुश्मन...

दोस्तों यह एक सच्ची घटना है। यह घटना है सन् 1962 की भारत और चीन के बीच लड़ाई की। चीन ने अरुणाचल प्रदेश में कब्जा करने के उद्देश्य से हमला कर दिया। चीनी सैनिकों द्वारा की गई इस हमले से भारतीय सैनिकों को काफी नुकसान हुआ और भारतीय सैनिकों की स्थिति कमजोर होने लगी तब वहां तैनात गढ़वाली यूनिट की चौथी बटालियन सेना को वापस बुला लिया गया। वापस बुलाए जाने के बाद भी लांस नायक त्रिलोकी सिंह, गोपाल और राइफलमैन जसवंत सिंह रावत वापस नहीं लौटना चाहते थे इसलिए सब मिलकर चीनी सैनिकों का डटकर सामना करने लगे।



    जब जसवंत सिंह रावत अपने साथियों के साथ चीनी सैनिकों से लड़ रहे थे उस वक्त जसवंत सिंह रावत की उम्र महज 21 वर्ष थी। जसवंत सिंह में देश प्रेम का जज़्बा इतना ज्यादा था कि सिर्फ 17 वर्ष की उम्र में वह सेना में भर्ती होने चले गए थे परंतु उस समय उम्र कम होने के कारण उसे सेना में भर्ती नहीं लिया गया। 19 अगस्त 1960 को जसवंत सिंह को राइफलमैन के रूप में सेना में शामिल किया गया। 14 सितंबर 1961 को उनकी ट्रेनिंग पूरी हुई। ट्रेनिंग पूरी होने के एक वर्ष बाद ही अर्थात 17 नवंबर 1962 को जसवंत सिंह को चीन के विरुद्ध यह लड़ाई लड़नी पड़ी। बाकी सिपाहियों के शहीद हो जाने के बाद भी जसवंत सिंह चीनी सेना से डटकर मुकाबला करते रहे और चीनी सैनिकों के ईट का जवाब पत्थर से देने लगे।
    नूरारंग की इस लड़ाई में चीनी सेना मीडियम मशीन गन (MMG) से ज़ोरदार फायरिंग कर रही थी, जिससे गढ़वाल राइफल्स के जवान मुश्किल में थे तब ये तीनों भारी गोलीबारी से बचते हुए चीनी सेना के बंकर के करीब जा पहुंचे और दुश्मन सेना के कई सैनिकों को मारते हुए उनसे उनकी MMG छीन ली तब कुछ चीनी सैनिको ने आकर उनका हमला कर दिया और जसवंत सिंह का एक साथी वह शहीद हो गए और जसवंत सिंह  चिनिओ का जवाब देते रहे और MMG को भारतीय बंकर तक पहुंचाने का काम गोपाल सिंह ने किया। 

     चीनी सैनिकों से लड़ते हुए लांस नायक त्रिलोकी सिंह और गोपाल भी शहीद हो गए। उस समय अकेले जसवंत सिंह ही बच गए थे और सामने थी चीन की विशाल सेना। तब उनकी मदद नूरा नाम की लड़की ने की थी।  माना जाता है की नूरा, जसवंत सिंह को पसंद करती थी इसीलिए वहा उनका साथ देने गयी थी और उसे भी चीनी सेना ने मार दिया था।  मुझे ये तो नहीं पता की सच में कोई नूरा थी भी या नहीं पर आज भी उस इलाके में कभी कभी उन दोनों की इस हिम्मतभरी प्रेमकहानी के चर्चे सुनाई पड़ते है। 

     जसवंत सिंह अकेले ही 10 हज़ार फीट ऊंची अपनी पोस्ट पर डटे हुए थे तब भी ऐसे विकट परिस्थितियों में भी जसवंत सिंह हार नहीं माने और लगातार 72 घंटों तक बिना कुछ खाए पिए भूखे पेट चीनी सैनिकों से अकेले लड़ते रहे। उस समय जसवंत सिंह अलग.अलग बंकरों में जाकर फायरिंग कर रहे थे जिससे चीनी सैनिकों को लग रहा था कि सभी बंकरो में बहुत सारे सैनिक है परंतु असल में सिर्फ जसवंत सिंह अकेले सैनिक थे। इस तरह जसवंत सिंह ने असाधारण बुद्धि और साहस का प्रयोग करके चीनी सैनिकों को दुविधा में डाल रखा था। जसवंत सिंह ने अकेले लगभग 300 चीनी सैनिकों को मार गिराया और जब अंत में उसकी सारी गोलियां खत्म हो गई थी थी और वो पूरी तरह घायल भी हो चुके थे तो चीनी सैनिकों ने उन्हें बंदी बनाकर मार डाला लेकिन तब तक भारतीय सेना की और टुकड़ियां युद्धस्थल पर पहुंच गईं और चीनी सेना को रोक लिया। इस बहादुरी के लिए जसवंत सिह को महावीर चक्र और त्रिलोक सिंह और गोपाल सिंह को वीर चक्र दिया गया।

     जिस स्थान पर जसवंत सिंह चीनी सैनिकों से जंग लड़े थे वहां पर जसवंत सिंह रावत का मंदिर भी बनाया गया है। उस मंदिर में जसवंत सिंह रावत की सारी वस्तुओं जैसे कपड़े, जूते, चप्पल, बेल्ट, राइफल, खाली कारतूस आदि अन्य वस्तुओं को सुरक्षित रखा गया है। साथ साथ आपको एक और रोचक बात बता दे की उनकी वर्दी को आज भी प्रेस किया जाता है।

    तो दोस्तों यह थी हमारे भारत के बहादुर सिपाही राइफलमैन जसवंत सिंह रावत की सच्ची घटना जिसने 72 घंटों तक भूखे पेट अकेले ही चीनी सैनिकों को रोक रखा था और माना जाता है की उनकी आत्मा आज भी वो एरिया की रक्षा करती है।

      दोस्तों अगर यह आर्टिकल आपको पसंद आया है तो अपने दोस्तों के साथ भी शेयर कीजिए ताकी और लोग भी जान सके भारत के इस वीर सपूत की बहादुरी के बारे में और हमारे फेसबुक पेज को लाइक कीजिए ऐसे ही आने वाले आर्टिकल्स की जानकारी पाने के लिए ... 


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दुनिया की सब से लम्बी पगड़ी....

       नमस्कार दोस्तों स्वागत है आप सभी का। दोस्तों जैसा कि हम सभी जानते हैं इस दुनिया में कई प्रकार की अजीबोगरीब घटनाएं होती रहती है कहीं पर कुदरत का करिश्मा देखने को मिलता है तो कहीं पर अकल्पनीय चमत्कार। इस दुनिया में अनेकों व्यक्ति एक से बढ़कर एक विश्व रिकार्ड बनाते जा रहे हैं ऐसे में हम आपको आज एक अद्भुत विश्व रिकॉर्ड के बारे में बताएंगे। आज हम बात करेंगे एक ऐसे बाबा के बारे में जिसकी पगड़ी ने बना दिया विश्व रिकॉर्ड आइए दोस्तों जानते हैं इस अद्भुत विश्व रिकॉर्ड के बारे में ।
        


       पगड़ी सिखों की शान होती है। कोई छोटी पगड़ी पहनता है तो कोई बड़ी पगड़ी पहनता है मगर दोस्तों क्या कभी आपने कल्पना की है कि कोई व्यक्ति अधिक से अधिक कितनी बड़ी पगड़ी पहन सकता है दोस्तों आज हम बताएंगे एक ऐसे बाबा के बारे में जो कुतुबमीनार से भी 9 गुना ज्यादा लंबी पगड़ी पहनता है आइये दोस्तों जानते हैं इस अनोखी विश्व रिकॉर्ड के बारे में।

       सामान्य रूप से पहने जाने वाली पगड़ी की लंबाई 5 से 6 मीटर तक होती है परंतु पटियाला में रहने वाले 62 वर्षीय अवतार सिंह जी 645 मीटर लंबी पगड़ी पहनते हैं, जी हां दोस्तों 645 मीटर लंबी पगड़ी। दिल्ली के कुतुबमीनार की ऊंचाई 73 मीटर है जबकि अवतार सिंह जी की पगड़ी 645 मीटर लम्बी है अर्थात कुतुबमीनार से 9 गुना बड़ी। इस 645 मीटर लंबी पगड़ी को पहनने में बाबा जी को 6 घंटे का समय लगता है। अवतार सिंह की पगड़ी और उसके कड़े सहित पगड़ी का कुल वजन 126 किलो होता है। जरा सोचिए दोस्तों सामान्य मनुष्य के लिए 100 किलोग्राम वजन उठाना भी मुश्किल होता है परंतु यहां बाबाजी 126 किलो की पगड़ी अपने सिर पर पहनते हैं। अवतार सिंह का यह कारनामा विश्व रिकॉर्ड बना चुका है।

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127 घंटों तक मौत से सामना...

        नमस्कार दोस्तों पिछले कुछ आर्टिकल्स में हम आपको विभिन्न प्रकार के रहस्यो के बारे में जानकारी दे चुके हैंए परंतु दोस्तों आज आपको बताएंगे एक ऐसी सच्ची घटना के बारे में जिसको जानकर निश्चित ही आपको बहुत कुछ सीखने को मिलेगा। दोस्तों आज हम बात करेंगे एक रियल हीरो एरन राल्स्टन के बारे में जिन्होंने खुद को जिंदा रखने के लिए अपने हाथ को काट दिया जी हां दोस्तों एरन राल्स्टन एक ऐसी जगह पर फंस गए थे जहां से उसको जिंदा बचकर निकलने के लिए अपने एक हाथ को काटना पड़ा। आइए दोस्तों जानते हैं इस सच्ची घटना के बारे में विस्तार से।
      
       यह घटना है अप्रैल 2003 की जब पर्वतारोही एरन राल्स्टन केन्याॅनलैण्ड्स नेशनल पार्क गए थे। एरन राल्स्टन जब ब्लूजाॅन में अंडरग्राउंड पुल में चढ़ाई कर रहे थे तब वह फिसल कर नीचे गिरने लगे एवं उसके साथ ही एक बड़ा सा बोल्डर भी गिर रहा था। एरन राल्स्टन कर दायाॅ हाथ कलाई तक उसी बोल्डर एवं पत्थर की दो दीवारों के बीच फंस गया। एरन राल्स्टन ने दीवार एवं बोल्डर के बीच फंसे अपने हाथ को निकालने के लिए बहुत प्रयास किया परंतु वह असफल रहा। जब उसनेे मदद के लिए आवाज लगाई तो उसे एहसास हुआ कि वह अकेला है। एरन राल्स्टन को दीवार के बीच फंसे हुए 4 दिन हो गए थे परंतु उसे किसी भी प्रकार से मदद नहीं मिली तब उसने अपने हाथ को काटने की सोची परंतु उसके पास पर्याप्त औजार नहीं होने के कारण वह ऐसा नहीं कर पाया जब पांचवें दिन वह सोया तो उसे अपने भविष्य एवं परिवार के बारे में सपना आया तब छठवें दिन उसने इस सपने को अपनी प्रेरणा बना लिया और उसके पास मौजूद पॉकेट नाइफ से दीवारों के बीच बोल्डर में फंसे हाथ को काट लिया और जिंदा बच गया 127 घंटों का वह समय एरन राल्स्टन का सबसे दुखद समय था परंतु इसी समय में उसने अपने मौत को भी हरा दिया और जिंदा बच गया।

       एरन राल्स्टन की इस दुखद घटना पर हॉलीवुड में एक फिल्म भी बनी थी जिसका नाम है "127 Hours"। दोस्तों सिर्फ एरन राल्स्टन ही नही बल्कि ऐसी और भी बहुत सी सच्ची घटनाएं है जिनमें कुछ बेमिसाल व्यक्ति विशेष ने मौत को भी हराकर अपनी मिसाल कायम की हैं। इन विशेष व्यक्तियों एवं इनके मौत को हराने  वाली सच्ची घटना को हम आपको  अगले आर्टिकल में जरूर बताएंगे।
      
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कराइ जा रही थी सचिन की शादी इस अभिनेत्री से फिर सचिन ने कहा - मैं तो....


     क्रिकेट जगत  में  मास्टर ब्लास्टर और क्रिकेट जगत भगवान से पहचाने जाने वाले सचिन तेंदुलकर की बोलर्स की नींद हराम करने वाली बैटिंग और उनके रिकार्ड्स के बारे में आप सब जानते ही  है की  इसलिए यहाँ हम उनके क्रिकेट के मैदान की अकल्पनीय बैटिंग के बारे में बताने नहीं जा रहे है पर उनकी छुपी हुई बैटिंग के बारे में बताने जा रहे है जिसे आप शायद ही जानते होंगे। तो आइये जानते है  सचिन की इस छुपी हुई बैटिंग के बारे में.... 

       इस आर्टिकल में हम आपको सचिन की लव स्टोरी के बताने जा रहे है। सचिन जब युवा क्रिकेटर थे तब वो भारत के मोस्ट बैचलर्स के नाम से जाने जाते थे और  उनके पीछे बहुत सारी लड़किया पागल थी। साल १९९३ - ९५ में जब सचिन की लोकप्रियता बढ़ने लगी थी तब  सचिन का नाम एक अभिनेत्री से जोड़ा जा रहा था और इतना ही नहीं उनकी शादी की खबरे भी मीडिया में ट्रेंडिंग थी। और खबरों के अनुसार उनकी शादी भी होने वाली थी। 




      अब आप सोच रहे होंगे की वो कोनसी अभिनेत्री थी जिनके साथ सचिन का नाम जोड़ा जा रहा था तो आप को बता दे की वो अभिनेत्री थी शिल्पा शिरोडकर। खबरों के मुताबिक दोनों मराठी थे और दोनों उच्च ज्ञाति के भी थे तो उनकी शादी में कोई समस्या नहीं थी  पर मीडिया के इस प्लान की पोल खुल गयी तब सचिन ने सामने से आकर बड़ा निवेदन दिया था की - मै तो उनको जानता तक नहीं हु। 

     जब सचिन और शिल्पा शिरोडकर की खबरे वायरल हो रही थी तब सचिन ने मीडिया के सामने आके बताया था की ये सब अफवा है क्योकि वो  कभी उनसे मिले नहीं है और नाहीं  उनको अच्छे से जानते है तो फिर शादी और अफैर कैसे हो सकता है। खैर, सचिन का नाम भले ही शिल्पा से जोड़ा जा रहा था पर वो तो एक लड़की के प्यार में क्लीनबोल्ड हो चुके थे और नहीं उसके बारे में किसी को पता था और अचानक ही सचिन ने अपनी शादी की घोषणा कर दी थी। 

     जब मीडिया एक तरफ उनका नाम उनके बचपन की फ्रेंड के साथ जोड़ रही थी तब दूसरी और सचिन एक लड़की के प्यार में पागल हो गए थे और वो लड़की का नाम था अंजलि। अंजलि से सचिन को पहली नजर वाला प्यार हुआ था और दोनों ने ३ साल तक एकदूसरे को डेट भी करते रहे। अचानक सचिन ने उनसे ५ साल बड़ी अंजलि के साथ अपनी शादी की अनॉउंसमेंट की तो सब हैरान हो गए थे। 

     सचिन की शादी मुंबई की एक रेस्टोरेंट में हुई थी तब लगभग १००-१५०  लोग वहा हाजर थे।  उस सब सचिन को एक चॅनेल ने १ लाख देकर उनकी शादी को लाइव टेलीकास्ट करने की ऑफर दी थी पर सचिन ने मना कर  दिया था और बताया था  शादी उनका अंगत मामला है।  आपको बता दे की सचिन की शादी २५ मई, १९९५ को हुई थी।  

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कभी ना डूबने वाली टाइटैनिक की डूबती हुई कहानी...

      
कभी ना डूबने वाली जहाज टाइटैनिक को आखिर उस रात क्या हुआ कि यह जहाज पूरी तरह से समुद्र में समा गई। टाइटैनिक इस पूरे विश्व का सबसे बड़ा जहाज था इसकी बनावट भी विशेष प्रकार की थी इस कारण कहा जाता था कि यह जहाज कभी नहीं डूबेगी परंतु अपने पहले ही सफर में यह जहाज टाइटैनिक पूरी तरह से समुद्र में कुछ इस प्रकार से डूब गई थी इसका मलबा भी 73 सालों बाद प्राप्त हुआ और इसमें सवार कुल 2224 यात्रियों सहित क्रू मेंबर में से 1500 से भी अधिक लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी। आइए दोस्तों जानते हैं इस ऐतिहासिक जहाज के बारे में विस्तार से और उसके डूब जाने की पूरी सच्चाई।

         एक विशाल और सुंदर जहाज बनाने के उद्देश्य से व्हाइट स्टार लाइन ने एक प्रोजेक्ट शुरू किया जिसका नाम टाइटैनिक रखा गया था। टाइटैनिक का निर्माण कार्य 31 मार्च 1909 को प्रारंभ हुआ और 26 माह बाद इसका निर्माण कार्य पूर्ण हुआ था। इस जहाज को बनाने में 15000 से भी अधिक मजदूर लगे थे टाइटैनिक जहाज 3 फुटबॉल मैदान जितना बड़ा था। यह जहाज 882 फीट लंबा और 175 फीट ऊंचा था। यह जहाज 44 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से आगे बढ़ने की क्षमता रखता था। यह जहाज 16 अलग.अलग खंडो में विभाजित था जो की पूरी तरह से जल रोधी थे अर्थात इसकी बनावट इस प्रकार थी कि एक खंड से पानी दूसरे खंड में नहीं जा सकता था। अगर किसी कारण से इस जहाज के चार खंडों में पानी भर भी जाए तो भी यह जहाज कभी नही डूबेगी। इसकी इसी बनावट के कारण इसको कभी ना डूबने वाला जहाज कहा जाता था।





        टाइटैनिक का पहला और अंतिम सफर : 

       आखिर 10 अप्रैल 1912 को वह समय आ ही गया जब टाइटैनिक को अपनी पहली यात्रा के लिए रवाना किया जाना था। टाइटैनिक की यात्रा शुरू होने के ठीक पहले व्हाइट स्टार लाइन ने टाइटैनिक के एक ऑफिसर डेविड ब्लेयर को दूसरे जहाज में शिफ्ट कर दिया गया परंतु उस समय डेविड ब्लेयर उस लॉकर की चाबी देना भूल गए जिसमें दूरबीन ;दूरदर्शीद्ध रखी हुई थी। इंग्लैंड के साउथैम्प्टन से 920 यात्रियों को लेकर टाइटैनिक न्यूयॉर्क के लिए रवाना हुई। फ्रांस के चेयरबर्ग से 274 यात्री लेकर टाइटेनिक 11 अप्रैल को आयरलैंड पहुंचा। आयरलैंड के क्वींसटाउन से 123 यात्रियों को लेकर टाइटेनिक न्यूयॉर्क के लिए रवाना हुई। अब टाइटैनिक में कुल 2224 यात्री और अन्य कर्मचारी थे।

         सुबह 9:00 बजे और दोपहर 1:00 बजे टाइटेनिक को रेडियो द्वारा 2 बार चेतावनी मिली की वह विशाल बर्फ के टुकड़ों में से होकर गुजर रहे हैं। जहाज के कैप्टन ने जब यह चेतावनी व्हाइट स्टार लाइन के चेयरमैन को बताया जो कि उस समय जहाज में मौजूद थे उस समय चेयरमैन ने जहाज की रफ्तार कम करने से मना कर दिया क्योंकि टाइटेनिक पहले ही निश्चित समय से पीछे चल रही थी। कैप्टन ने टाइटैनिक को दक्षिण से ले जाने को कहा 1:45 पर पुनः टाइटेनिक को जर्मन जहाज SS AMERICA, जो उस वक्त उसी रूट पर थी के द्वारा संदेश दिया गया कि वह जिस तरफ से गुजर रहे हैं वहां दो बड़े विशाल हिमपर्वत ;पानी पर तैरते हुए बर्फ के चट्टानद्ध  है परंतु यह संदेश टाइटेनिक तक कभी पहुंचा ही नही। रात लगभग 10:30 पर टाइटेनिक को कैलिफ़ोर्निया जहाज द्वारा पुनः चेतावनी मिली परंतु टाइटेनिक के रेडियों ऑपरेटर ने इस चेतावनी को गंभीरता से नहीं लिया। जहाज के लॉकर में दूरबीन था मगर लॉकर की चाबी नहीं होने के कारण कैप्टन ने 2 कर्मचारियों को जहाज के आगे तैनात किया था कि किसी खतरे के बारे में जानकारी दे सके। कुछ समय पश्चात जहाज में तैनात कर्मचारी को अंधेरे से भी काली परछाई दिखाई दी जो रात में तारों की रोशनी को भी रोक रही थी इसको देखते ही वह कर्मचारी समझ गया कि यह विशाल हिमपर्वत है। उन्होंने कैप्टन को तुरंत इसकी सूचना दी परंतु पर्याप्त समय नहीं होने के कारण जहाज को मोड़ना मुश्किल था। कैप्टन ने जहाज को हिम पर्वत से दूर ले जाने की पूरी कोशिश की परंतु फिर भी जहाज 100 फीट ऊंचे हिमपर्वत से साइड से टकराते हुए निकली इस वजह से जहाज के 16 खंडों में से पांच खंडों को भारी नुकसान हुआ और उसमें पानी भर गया।  तभी टाइटेनिक को बनाने वाले इंजीनियर में से एक ने बताया कि अब यह जहाज 2 घंटो से ज़्यादा समय तक नहीं टिक पाएगा। तब यात्रियों को सुरक्षित बचाने के लिए लाइट बोट का इस्तेमाल किया गया। उस समय जहाज में सिर्फ 20 लाइटबोट ही थी। सुबह 12:25 को पहली लाइट बोट सिर्फ 28 यात्रियों को लेकर निकल गई लेकिन उस लाइट बोट में कुल 65 यात्रियों को ले जाने की क्षमता थी। इस प्रकार सभी लाइट बोट में कुल 706 यात्री ही सुरक्षित बचाये जा सके।

         टाइटैनिक के आगे की पांच खंडों में पानी भर जाने के कारण इस जहाज के आगे का पूरा हिस्सा पानी में डूबता जा रहा था और पीछे का हिस्सा दबाव के कारण हवा में ऊपर उठता गया। जिसकी वजह से यह जहाज 15 अप्रैल को सुबह 2रू20 को बीच से दो हिस्सों में अलग.अलग हो गया और कभी ना डूबने वाला यह जहाज कुछ इस तरह से समुद्र में डूब गया कि इसका मलबा भी 73 सालों बाद प्राप्त हुआ। आज भी इस जहाज के दोनों टुकड़े समुद्र के तल पर एक दूसरे से 600 फीट की दूरी पर पड़े हैं।

         इस घटना में 1500 से भी अधिक लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी। आधे से ज्यादा लोग डूबने से नहीं बल्कि ठंड की वजह से मर गए क्योंकि उस समय समुद्र की पानी का तापमान माइनस 2 डिग्री सेल्सियस था।

       कभी ना डूबने वाली यह जहाज टाइटैनिक महज़ 2 घंटे 40 मिनट में पूरी तरह से समुद्र में समा गई। इतिहास बनाने वाली यह जहाज सिर्फ एक ही रात में इतिहास बनकर रह गई। दोस्तों अगर यह आर्टिकल आपको पसंद आया है तो अपने दोस्तों के साथ भी शेयर करिये और ऐसे ही चटपटी रहस्यमयी आर्टिकल पढ़ने के लिए हमारे फेसबुक पेज को लाइक कीजिए....
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प्रसिद्ध पिरामिड के हैरान कर देने वाले अनसुलझे रहस्य......


दोस्तों पिछले आर्टिकल्स में हम आपको विभिन्न प्रकार के रहस्यो के बारे में जानकारी दे चुके हैं परंतु दोस्तों आज हम आपके लिए लेकर आए हैं एक ऐसा रहस्य जिसको जानकर आप भी हैरान हो जाओगे और सोचने को मजबूर हो जाओगे। दोस्तों आज हम आपको बताएंगे इस दुनिया के सबसे बड़े रहस्य के बारे में जो कि अपने आप में ही एक अद्भुत और रोचक रहस्यमयी पर्यटन स्थल है।

दोस्तों हम जिस रहस्यमयी जगह के बारे में बात कर रहे हैं वह है मिस्र का पिरामिड। यह पिरामिड देखने में बहुत ही सुंदर और प्राचीन स्मारक है। परंतु दोस्तों जितनी खूबसूरत यह जगह है उससे कहीं ज्यादा रहस्यमयी भी है। सुंदर सी दिखने वाली इस पिरामिड के अंदर और बाहर अनेकों रहस्य है जिसमें से कुछ रहस्य खुल चुके हैं और कुछ रहस्य अभी भी रहस्य बना हुआ है। आइये दोस्तों जानते हैं इन रहस्यों के बारे में विस्तार से।




‌दोस्तों मिस्र में कुल 138 पिरामिड है परंतु इनमें ग्रेट गिज़ा पिरामिड सबसे प्रसिद्ध है जो कि गिज़ा में है। ग्रेट गिज़ा पिरामिड को बनाने में मिस्र वासियों को उस समय 23 साल लगे थे। ग्रेट गिज़ा पिरामिड की ऊंचाई 450 फीट है। 43 शताब्दियों तक यह दुनिया की सबसे ऊंची संरचना थी परंतु 19वीं सदी में यह रिकॉर्ड टूट गया। सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि आखिर इतनी बड़ी पिरामिड को बनाया कैसे गया? यह पिरामिड 25 लाख चुना पत्थरो से बनाया गया था और प्रत्येक पत्थरों का वजन 2 टन से 30 टन तक था। अब सवाल यह बनता है कि उस समय के मजदूर इतने वजनी पत्थरों को कैसे उठाते थे और एकदम परफेक्ट पिरामिड स्ट्रक्चर कैसे बना पाए? दोस्तों 4 हजार साल पहले इतनी वजनी पत्थरों से वह भी बिना किसी तकनीक के इतनी परफेक्शन के साथ पिरामिड बनाना लगभग असंभव था। दोस्तों में ऐसा इसलिए कह रहा क्योंकि आज के इंजीनियर्स का मानना है कि आज तकनीकी ज्ञान में इतना विकसित होने के बाद भी इस पिरामिड जैसा दूसरा पिरामिड बनाना असंभव है।
माना जाता है कि पिरामिड इसलिए बनाया जाता था ताकि राजा महाराजाओं के शवों को ममी के रूप में सुरक्षित रखा जा सके। परंतु दोस्तों हैरान कर देने वाली बात यह है कि अभी तक पिरामिड में एक भी ममी (शव) नहीं मिली है। वैज्ञानिकों का मानना है कि पिरामिड के अंदर और भी कई गुफाएं एवं कमरे हो सकते हैं जिसके बारे में हमें कोई भी जानकारी नहीं है। हालांकि पिरामिड को अभी तक पूरी तरह से एक्सप्लोर नहीं किया गया है। मिस्र के इस गिजा पिरामिड के निर्माण में खगोलीय आधार भी पाए जाते हैं। इस पिरामिड समूह के तीनों पिरामिड ओरियन राशि के 3 तारों के बिल्कुल सीध में है। एक और रहस्य यह है दोस्तों अगर पूरी दुनिया के नक्शे को लेकर उसमें केंद्र का पता लगाया जाए तो उसका भौगोलिक केंद्र बिंदु ग्रेट गिजा़ पिरामिड प्राप्त होता है अर्थात् यह पिरामिड पूरी दुनिया के केंद्र पर स्थित है। अब यह एक संयोग भी हो सकता है और एक रहस्य भी कि आखिर बिल्कुल केंद्र में ही यह पिरामिड कैसे बनाया गया है।

ग्रेट गिज़ा पिरामिड में पत्थरों का प्रयोग कुछ इस प्रकार किया गया है कि इस पिरामिड का ताप हमेशा 20 डिग्री सेल्सियस रहता है जो कि इस पृथ्वी का औसत तापमान है। पिरामिड के बाहर तापमान कितना भी रहे परंतु अंदर का तापमान हमेशा 20 डिग्री सेल्सियस ही रहता है।
पिरामिड के आधार के चारों कोनो के पत्थरों को बाल और साकेट तकनीक से बनाया गया है ताकि ऊष्मीय प्रसार एवं भूकंप से भी यह पिरामिड सुरक्षित रहे। सोचिए दोस्तों 4 हजार साल पहले भूकंप रोधी स्मारक ? अब 4 हजार साल पहले मिस्र के श्रमिको को इतना ज्ञान कहां से आया यह भी एक रहस्य है। जरा सोचिए दोस्तों 4000 साल पहले वह भी बिना किसी टेक्नालॉजी के यह पिरामिड कैसे बनाया गया होगा जिसे आज की एडवांस टेक्नोलॉजी होने के बाद भी नहीं बनाया जा सकता। इस पिरामिड के अंदर अभी भी बहुत कुछ छानबीन करना बाकी है जिससे संभवतः और भी अनेकों रहस्य खुल सकते हैं।


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3:03 PM
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सूख गया 24000 साल पुराना अराल सागर...


    अराल सागर कजाखस्तान और उज्बेकिस्तानकी सीमाओं में स्थित है। अराल सागर दुनिया का चैाथा सबसे बड़ा झील माना जाता था इसी कारण इस झील को सागर भी कहा जाता है। सन् 1960 में अराल सागर का क्षेत्रफल 68000 वर्ग किण्मीण् था परन्तु वर्तमान में इस संपूर्ण क्षेत्रफल का सिर्फ 10 फीसदी ही शेष बचा है। 1960 में अराल सागर की अधिकतम गहराई 102 मीटर थी परन्तु अब सिर्फ 42 मीटर ही शेष रह गई है। परिणामस्वरूप अराल सागर का पूर्वी भाग रेगिस्तान में बदल गया। प्रश्न यह उठता है कि आखिर ऐसा क्या हुआ जिसकी वजह से यह खूबसूरत सागर रेगिस्तान में बदल गया तो आइये दोस्तो जानते है अराल सागर के सूख जाने का कुछ प्रमुख कारण।

       अराल सागर एक ऐसा सागर जो कुछ दशक पहले पानी से लबालब भरा हुआ था परन्तु अचानक ऐसा क्या हो गया कि इस सागर का 90 फीसदी भाग सूख गया और वर्तमान में सिर्फ 10 फीसदी भाग में ही पानी भरा हुआ हैघ् वर्तमान में इस सागर का 90 फीसदी भाग रेगिस्तान बन चुका है। कुछ दशक पहले यह पूरी जगह चारो ओर से पानी से घिरा हुआ था परन्तु अब इस जगह पर चारो ओर रेत ही रेत और नमक के टीले दिखाई देते है। आखिर ऐसी कौन सी वजह है जिसके कारण इस सागर का 90 फीसदी भाग सूख गया। आइये दोस्तो जानते है इस अराल सागर के बारे में विस्तार से।

      आमू नदी और सीर नदी अराल सागर में विसर्जित होने वाली दो प्रमुख नदियाॅ थी। इन दोनो नदियों एवं वर्षा  जल के कारण अराल सागर में पानी भरा रहता था। परन्तु सन् 1960 के दशक  में सोवियत प्रशासन इन नदियों के पानी का उपयोग मरुद्भूमि में सिंचाई कार्य में करने लगे। मुख्य रुप से यह सिंचाई कार्य कपास आदि के फसलो में किया जाता था। चूॅकि कपास की खेती के लिए सर्वाधिक मात्रा में पानी की आवश्यकता होती है इस कारण सन् 1980 के आते तक अराल सागर में आमू नदी और सीर नदी का पानी बहुत कम मात्रा में विसर्जित होने लगा जिसकी वजह से अराल सागर में पानी की मात्रा में कमी होने लगी। इस वजह से यह झील सिकुड़ता जा रहा है। इस कारण यह झील अपने मूल आकार का सिर्फ 10 फीसदी ही शेष रह गया है।


     अराल सागर के उत्तरी भाग को बचाएं रखने के लिए कजाखस्तान ने सन् 2005 में बांध परियोजना पूरी की जिससे सन् 2008 में झील के पानी का स्तर सन् 2003 की तुलना में 12 मीटर तक बढ़ गया। कजाखस्तान का यह प्रयास कुछ स्तर तक सफल भी रहा परन्तु अराल सागर को अब पहले जैसा नही बनाया जा सकता क्योंकि अब नदियों में भी पर्याप्त मात्रा में पानी उपलब्ध नही है जिससे इस सागर को पुनः भरा जा सके।

      दोस्तो मनुष्य जाति अपने स्वार्थ पूर्ती के लिए प्रकृति से छेड़छाड़ कर रही है जिसका परिणाम बहुत ही घातक हो सकता है। अराल सागर का सिकुड़ना इसका सटीक उदाहरण है। 1960 के दशक में सोवियत प्रशासन ने पैदावार में बढ़ोतरी के लिए आमू और सीर नदी के पानी का उपयोग मरुद्भूमि में सिंचाई के लिए करने लगे जिसकी वजह से अराल सागर का 90 फीसदी भाग सूख चुका है। दोस्तो अगर हम प्रकृति का संरक्षण नही करेंगे तो एक समय ऐसा आएगा कि प्रकृति हमें संरक्षित नही करेगी और विभिन्न प्रकार की प्राकृतिक आपदाए आ सकती है। दोस्तो अगर यह आर्टिकल आपको पसंद आया है तो अपने दोस्तो के साथ भी शेयर करिये और हमारे फेसबूक पेज को लाइक करिये ऐसी ही चटपटी आर्टिकल्स के लिए.... 


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भारत की इस झील में दफ़न है अरबों का खज़ाना...

    नमस्कार दोस्तो, दोस्तो आपने बहुत सारे सुंदर और रहस्यमयी नदियों, झीलो और समुद्रो के बारे में तो सुना ही होगा। आज हम आपको एक ऐसी ही रहस्यमयी झील के बारे में बतायेंगे जिसके अंदर कई अरबो रू. का खाजाना दफन है। जिसे आसानी से देखा जा सकता है। दोस्तो यह झील कुछ ज्यादा ही अद्भुत प्रकार का है क्योंकि इन खाजानो को कोई भी मनुश्य हाथ भी नहीं लगा सकता क्योंकि इनके रक्षक स्वयं नाग देवता होते है। आइये जानते है इस रहस्यमयी झील के बारे में विस्तार से।

   हिमांचल प्रदेश के पहाड़ो में स्थित कमरूनाग झील पूरे साल में 14 और 15 जून को ही खुलता है। यह कमरूनाग झील कमरूनाग देवता के मंदिर के पास ही स्थित है। इस झील में अरबो रू. का खाजाना छिपा हुआ है जिसे हम असानी से देख सकते है। दोस्तो अब प्रश्न यह उठता है कि इस झील में इतने सारे रू.-खाजाने कहा से आए़? और इन खाजानो को कोई अपने साथ क्यों नहीं ले जा सकता? आइये दोस्तो जानते है इन सभी सवालो के जवाब।





   कमरूनाग मंदिर में हर वर्ष मेला लगता है जिसमें बहुत सारे भक्त आते है। सदियों से चली आ रही मान्यता है कि इस झील में साने-चाॅदी या रूपये-पैसे डालने से मनोकामना पूर्ण होती है। इस कारण सभी भक्त इस झील में सोने-चाॅदी आदि चढ़ाते है। माना जाता है कि सदियो से चली आ रही इसी परम्परा के कारण कमरूनाग झील में अरबो का खाजाना जमा हो गया है। ऐसा भी माना जाता है कि यह सभी खाजाना देवताओं का है और यह झील पाताल लोक से जुड़ा हुआ है। दोस्तो इस खाजाने को हम देख तो सकते है परन्तु उसे अपने साथ नहीं ले जा सकते क्योंकि ऐसा माना जाता है कि इस खाजाने की रक्षा स्वयं नाग देवता करते है। ऐसी मान्यता है कि इस झील वाले क्षेत्र में नाग देवता है जो स्वयं इन खाजानो की रक्षा करते है।

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अंग्रेज भारत से कितने रुपये ले गए...?


नमस्कार दोस्तो, दोस्तो आज भी बहुत लोगो का मानना है कि हमारे भारत देश का जो विकास हुआ है वह सब अंग्रेजो की देन है। परन्तु दोस्तो क्या आप इस बत से सहमत है? दोस्तो हमारे भारत को यूं  ही सोने की चिडियाॅ नही कहा जाता था, हमारे भारत में अपार धन - संपत्ति मौजूद था। इसी का फायदा उठाने अंग्रेज भारत में व्यापार करने आए और भारतीय व्यापारियों को ही लूटने लगे और लगातार भारतीय व्यापारियों का शोषण करते रहें। अंग्रेज अलग - अलग हथकंडे अपनाकर लगातार भारतीय व्यापारियों को लूटने लगे।


    अंग्रेज भारत में मौजूद अपार धन संपदा का फायदा उठाकर स्वयं का विकास करते रहे। अंग्रेजो के समय की कहानियाॅ तो आपने बहुत सुनी होगी। लगभग 200 सालो तक के अपने राज में अंग्रेजो ने भारत को बेहिसाब दर्द दिए। सोने की चिड़ियाॅ कहलाने वाले भारत दे को ऐसी स्थिति पर लाकर खड़ा कर दिया कि अब यहाॅ कि अर्थव्यवस्था को ठीक - ठीक बनाए रखने के लिए कर्ज लेने की नौबत आ जाती है। आज रूपये की कीमत भी बहुत गिर गई है। अंग्रेजो के राज में 1रू बराबर 1 डाॅलर हुआ करता था परन्तु अब 1 डाॅलर की कीमत 70 रू. पार कर गयी है। दोस्तो हम सबको पता है कि भारत की संपत्ति को कई लूटेरे लूट कर ले गए। परन्तु क्या कभी आपने सोचा है कि अंग्रेज आखिर भारत से कितनी संपत्ति लूट कर ले गए और अंग्रेजो ने भारत को किस तरह लूटा? आइये जानते है इन सभी सवालो के जवाब।

    भारतीय अर्थशास्त्री उत्शा पटनायक ने पिछली 2 ताब्दी के आंकड़ो का गहन् अध्ययन करके पुस्तक लिखी जिसका प्रकान कोलंबिया यूनिवर्सिटी प्रेस द्वारा किया गया। इस रिसर्च पेपर के अनुसार अंग्रेज भारत से 45 त्रिलियन डाॅलर अर्थात लगभग 32 लाख अरब रू की संपत्ति लूट कर ले गए। ये सारी संपत्ति सन् 1765 - 1938 के बीच लूटे गए थे। आइये दोस्तो जानते है इतनी बड़ी संपत्ति अंग्रेज किस तरह लूट ले गए।

   अंग्रेजी शासन (ईस्ट इंडिया कंपनी) ने भारत पर कई तरह के कर (टैक्स) लगाए, खासतौर पर यह कर भारतीय व्यापारियों और आम नागरिको पर लगाए गए। कर (टैक्स) से प्राप्त पैसो से ईस्ट इंडिया कंपनी की आमदनी बढ़ती गई। कर (टैक्स) से प्राप्त आमदनी की एक तिहाई हिस्से का उपयोग अंग्रेज भारतीय व्यापारियों से समान खरीदने के लिए करते थे अर्थात् भारतीयों के दिए कर (टैक्स) के एक हिस्से से ही अंग्रेज भारतीयो से समान खरीदते थे। इस प्रकार अंग्रेज भारतीय समानो का मुफ्त में उपयोग करते थे। समान खरीदने के लिए अंग्रेजो को खुद के पैसो का उपयोग नहीं करना पड़ता था। इन सभी बातों पर उत्शा पटनायक नामक भारतीय अर्थशास्त्री ने गहन् अध्ययन कर बताया। इससे पहले किसी भी रिसर्च रिपोर्ट में ब्रिटि काल के कामकाजो पर इतने गहन् तरीके से अध्ययन नहीं किया गया था।

    रिसर्च रिपोर्ट के अनुसार भारतीयो द्वारा दिए कर से सस्ते दामो में भारतीय व्यापारियों से ही समान खरीदा जाता था। इन समानो को ब्रिटेन में निर्यात कर इस्तेमाल किया जाता था तथा शेष समान को दूसरे देशो में बेचा जाता था। मतलब यह कि मुफ्त के समान को इस्तेमाल भी किया जाता था और बेचा भी जाता था। भारत से मुफ्त में मिले समानो के निर्यात के कारण ब्रिटेन को यूरोप के बाकि देषो से बहुत ज्यादा मुनाफा होने लगा। इस तरह मुफ्त के समान से अंग्रेजो को त् प्रतिषत् मुनाफा हुआ और लगातार ब्रिटेन का विकास होता गया।

       भारतीय अर्थशास्त्री उत्शा पटनायक ने सन् 1765 - 1938 के बीच 190 सालो में भारत से लूटी गयी संपत्ति का  गणना किया और जो अनुमान निकल कर आया उस पर 5% कर लगाया। इस प्रकार सन् 1765 - 1938 के बीच 190 सालो में अंग्रजो द्वारा भारत से लूटी गयी संपत्ति का अनुमान लगाया गया यह संपत्ति थी 44.6 त्रिलियन डाॅलर।

   दोस्तो अब तो आपको पता चल ही गया होगा कि अंग्रजो ने भारत का विकास नहीं किया है बल्कि भारत ने अंग्रजो का विकास किया है। दोस्तो अगर यह आर्टिकल आपको पसंद आया है तो अपने दोस्तो के साथ भी शेयर करिये और हमारे फेसबूक पेज को लाइक करिये ऐसी ही चटपटी आर्टिकल्स के लिए.... 
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